एक यात्रा... दिन के अंतिम पड़ाव की ओर बढ़ रहे सूर्यदेव की मानो कमजोर हो चुकी किरणें अगले दिन एक बार फिर से मिलने के वादे के साथ विदा लेते हुए सबके दर्शन को आतुर चन्द्रमा का स्वागत करने को बेताब दिख रही थीं कि अचानक ट्रेन के रुकने का एहसास हुआ और प्लेटफार्म की गूंजती आवाज कानों में दस्तक देनें लगी। जगह जानने की उत्सुकता जागी और नजरें चारो तरफ तैरने लगीं, लेकिन अफसोस कि दूर-दूर तक प्लेटफार्म पर नेम प्लेट नजर नहीं आया, इसलिए स्थान स्पष्ट नहीं हो सका कि हम कहां पर हैं। खैर कुछ देर भी नहीं बीते होंगे कि ट्रेन के पहिए घूमने लगे और मैं जगह जानने की उत्सुक्ता लिए प्लेटफार्म की ओर खिड़की के बगल में बैठे परिवार से पूछ बैठा कि अभी कौन सा स्टेशन निकला है और इस समय हम कहां पर हैं? दूसरी ओर से चंद पलों के बाद कमजोर हो चुकी आवाज में दम भरने का एहशास कराती मानो मिर्ची का तड़का लगा हो कुछ ऐसे ही अंदाज में एक आवाज मेरे कानों तक पहुंची मानिकपुर। यह लड़खड़ाती लेकिन कड़क आवाज दरअसल उस बूढ़ी मां की थी जो एक महिला शायद उनकी बहु हो तथा एक ऐसे नटखट लगभग दो वर्ष के बच्चे शायद उनका पोता हो के साथ सफर कर...
"स्वयं हमेशा खुश रहें और सदैव अच्छे लोगों को खुश रखने की कोशिश करें। प्रयास यह निरंतर होना चाहिए कि, आपकी कोई भी गतिविधि ऐसी ना हो जिससे किसी सज्जन जीव को किसी भी प्रकार के मुश्किल का सामना करना पड़े...।" -धर्मेश तिवारी