Skip to main content

तोहफा


रक्षा बंधन.................। चारो तरफ फुटपाथ से लेकर बड़े-बड़े दुकानों तक अनेको रंग बिरंगी राखियों का कब्ज़ा। आलम यह कि कहीं तख़्त पर पड़े बड़े-बड़े छतरी तो कहीं रस्सियों से लटके मनमोहक रंगों में रेशम के धागे जो खुद ही लोगों को अपनी तरफ आकर्षित कर सबको बता देते हैं कि भाई बहन का त्यौहार बिलकुल करीब है। ऐसे मौके पर जहां एक तरफ सड़कों के किनारे अनेकों दुकानों से लेकर बड़े-बड़े मॉल भी इस त्यौहार में लोगों को अपनी तरफ रिझाने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते तो दूसरी तरफ मिठाईयों कि दुकानों को हर कोई खगालने में ही ब्यस्त होता है। आखिर ऐसा हो भी क्यों न यही तो वो पवित्र त्यौहार होता है जो भाई-बहन के रिश्ते को और मजबूत करता है और साथ ही इसी बहाने भाई को एक और मौका मिलता है अपनी लाडली या फिर बड़ी बहन को कुछ तोहफा देने का.............................।
दरअसल ये सारी बाते कैंसर के जाल में फंसे अर्जुन के दिमाग में घंटों से चक्कर लगाये जा रही थी। कमरे में पड़ी टूटी चारपाई जिसने एक झूले का स्वरुप ले रख्खा था पर लेटा अर्जुन हाथ को अपने सिर पर रख्खे दोनों आँखों को सीधे छत की ओर एक टक लगाये इस क़द्र देख रहा था, मानो उसकी आँखे कमजोर छत को चीर कर सीधे आसमान में बैठे किसी देव से बाते कर रही हों। बीते हर लम्हे को याद करते हुए अर्जुन अपने जीवन में हो रहे उथल पुथल के लिए कभी अपनी किस्मत तो कभी भगवान को कोसता है और फिर अपनी बहन के आने का इंतजार करने लगता है। उसके आने में हो रही देरी पर अपने बापू को कोसते हुए सोचता है कि कितनी बार समझाया था की अपनी बराबरी में ही शादी करो लेकिन वो तो ठहरे जिद्दी किसी की एक न सुनी और लाडली के जीवन में खुशियों की बरसात कराने के लिए एक बड़े हैसियत वाले के घर रिश्ता करके उसको जेल स्वरुप उस घर में पहुंचा दिए जहाँ रिश्तों को कोई तरहीज नहीं दी जाती। वह उस घर में है जहाँ इच्छाओं की कल्पना किये बिना केवल आदेशों का पालन करना ही मात्र जिन्दगी है। वर्ष में सिर्फ एक बार ही उसे यहाँ घूमने आने की इजाजत है जिसका उपयोग बहना राखी के समय ही किया करती है।
आगे सोचता है कि हजारों दुखों को झेलने वाले चेहरे को हमेशा की तरह हंशमुख बना लाखों खुशियों पर झूठा कब्ज़ा जमाते हुए साथ बैठ कर खाना खाने की इच्छा लिए इस बार भी वो जरुर आएगी। राखी बांधते समय उसकी जिद्द करने वाली आदत बहुत ही अच्छी लगती है। आखिर मै भी थोडा परेशान करने के बाद उसकी छोटी सी जिद्द को पूरा कर ही देता था लेकिन इस बार उसके जिद्द पर क्या उपहार दे पाउँगा। माँ होती तो कुछ न कुछ इंतजाम जरुर ही कर देती पर वो भी तो नहीं है। किस्मत ने उसे भी तो दूर आँखों से ओझल कर दिया है। अपने आप से कहता है कि अब देखो न आखिर उन भैंसों का क्या बिगाड़ा था माँ ने जो उनको खेत से बाहर निकालने के बदले उसे अपनी जान गवानी पड़ी। वो सिर्फ उन्हें अपने खेत से बाहर निकालने ही तो गयी थी। वह भी क्या करे बिचारी, क्यों न उस खेत की देख भाल करे वही तो एक छोटा सा जमीन का टुकड़ा हमारे बापू के हिस्से में आया था जब गांव के दबंग लोगों के साथ मिल कर बापू के भाईयों ने बंटवारा किया था। बिचारा एकलौता कुछ ही कदम भर का, हम चार लोगों के पेटों को सिर्फ जीने भर के लिए अनाज उपलब्ध करवा पाता था यदि दबंगों की भैंसों से बचे तब।
मैं पूछता हूँ कि आखिर कौन नहीं बचाना चाहता अपनी फसल को। लेकिन इसके बदले मुझे जन्म देने वाली उस ममता की छाँव को इतना बेरहमी से इस कदर पीटा गया कि हम बाप बेटा जबतक उसे अस्पताल लेकर पहुँचते तबतक उसकी आत्मा इस दुनिया से कहीं दूर, इतनी दूर जा चुकी थी कि दुबारा जीवन में कभी उस छाया का स्पर्श नही हो सका। वह कैसी बयार बही जो आज तक समझ से परे है, जो एक तरफ माँ को दूर ले गयी तो दूसरी तरफ पुरे जीवन दिल को मजबूत करते हुए हजारों दिक्कतों का डट कर सामना करने वाले बापू इस सदमे को बर्दास्त नही कर पाए और माँ का साथ छूटे कुछ मिनट भी नहीं बिता होगा कि उनकी हालत गंभीर होती चली गयी। उस खतरनाक बयार से जूझने की कोशिश में मैं बदकिस्मत रोता रहा और दूसरी ओर इस दुनिया में भागवान का रूप कहे जाने वाले डाक्टर बाबूजी को हाथ लगाने तक को तैयार तक नहीं थे। दरअसल उस दिन पता चला कि उन्हें किसी मरीज के जीने या मरने से कोई मतलब नही था। उनको तो बस तत्काल हजारों रुपये चाहिए थे जो मुझ अनपढ़ गरीब के पास नही थे।
ऊपर आपदा टूटी तो कब इसके बाढ़ में हंसी बह गयी और मायूसी ने अपने कब्जे में जिन्दगी को किस तरह समेट लिया पता ही नहीं चला। मुश्किल पल में दिन धीरे धीरे किसी तरह बीतता चला गया, ऐसे में आरती (अर्जुन की पत्नी) ही तो बस साथ थी जो जिन्दगी की गाड़ी में इंधन डालने का हर पल पुरजोर कोशिश करती रही। दरअसल जीवन में इतना बड़ा पहाड़ के टूटने के बाद भी वो मुझ कमजोर को मजबूत बनाने में कोई कसर नही छोड़ना चाहती थी, लेकिन उसे भी क्या पता था कि ऐसा करने का उसे अधिकार तो है परंतु ये फिलहाल मेरी किस्मत में नहीं है। फिर क्या था मेरी जिन्दगी में खुशियां भरने का जिम्मा उठाये आरती अपने पेट में बच्चे को लेकर दवा के इंतजार में अपने हर उस वादे को तोडती रही जिसमे हम दोनों ने पूरा जीवन साथ जीने का सपना देखा था, और मै...............मैं एक बार फिर अस्पतालों के दरवाजों से सिर्फ और सिर्फ निराशा ही पाता रहा।
दूसरों की जिन्दगी में होने वाले उथल पुथल पर गंभीर चर्चा करने से नहीं चूकने वाले समाजिक प्राणी कहे जाने वाले इंशान के सामने भी पैसा सूद समेत वापस करने के वादे के साथ हाथ पसारता रहा लेकिन मुठी खाली ही खुली और निराशा लेकर फिर खाली ही बंद हुई। उस दिन पता चला कि इन्हें तो दूसरों के बारे में चर्चा कर अपना समय व्यतीत करने के अलावा किसी की मदद करने की फुरसत ही नही। कुछों ने मेरी फरियाद सिर्फ सुनने की रहम की तो कुछ..................कुछ तो मुह खुलने के पहले ही टाल कर इस वादे के साथ कि बेटा थोड़ी जल्दी में हूँ कोई बात होगी तो जरूर बताना कहकर चलते बने। समय अपनी गति से आगे बढ़ रहा था, उधर आरती अस्पताल में कराहती रही और मैं हर तरफ ठोकर खाता उम्मीद के साथ दौड़ता रहा कि कोई तो मदद करेगा.................कि अचानक कानों में एक जानी पहचानी आवाज़ ने दस्तक दी।
रघु चाचा थे वे जो बहुत जोर से चिल्ला कर मुझे बुलाये जा रहे थे। उन्हें देख कर उम्मीद ने दिल में जगह बनाई और दौड़ता हुआ उनके पास जाकर कुछ बोलना चाहा की उन्होंने पीठ पर हाथ रखकर मुझे चुप कराने में किसी मशीहा की भांति सफल कोशिश की। बचपन से सुना था कि गांव में वो इकलौते इंशान हैं जो किसी मशीहा से कम नहीं, जो बिना किसी आमंत्रण के ही दूसरों की मदद को हर वक्त तैयार रहते हैं। दरअसल मेरे पास तबतक उनका यही एक परिचय था। उन्होंने उस मुश्किल समय में मेरी मदद की या बर्बाद करने में कोई कसर नही छोड़ी ये बात आज भी अनसुलझी गुथ्थी है। बिना समय गवांये सिर पर हाथ फेरते हुए रघु चाचा ने किस तरह मेरे सामने एक कागज का सफेद टुकड़ा रखते हुए जल्दी से उस पर अंगूठा रखने का कोमल आदेश देते हुए मेरे सामने कुछ रुपयों से भरी पोटली रखी थी। दरअसल मेरी मुश्किल घडी का फायदा उठाने का दांव वो हर हाल में चूकना नही चाहते थे और पैसे के बदले मेरे पास पड़े जमीन के उस छोटे से टुकड़े पर सिर्फ अपना नाम चाहते थे। जितनी ही तेजी से समय भागता गया उतनी ही धीरे धीरे रघु चाचा के हाथ मेरे सिर और चेहरे पर रेंगते रहे और उनकी मधुर आवाज कानों में घूमती रही कि बेटा सोचो मत जल्दी से पैसे ले जाओ और अपनी पत्नी को बचा लो। फिर क्या था आरती की कराह के दर्द ने उस जमीन के टुकड़े से मोह भंग करना उचित समझा और मैं अपने बापू द्वारा मिले उनकी अंतिम निशानी उस जमीन के टुकडे को उनके ही निशान उनके पोते के लिए दूसरों के हाथों आजाद कर बदले में मिले कुछ चंद रूपये लेकर जब तक अस्पताल पहुंचता तब तक आरती भी मुझ बदकिस्मत को इस दुनिया में अकेले छोड़ कर दूर जा चुकी थी। वो भी क्या करे, आखिर मै उस बेचारी को दे ही क्या पाया था। जबसे उसने मेरा हाथ पकड़ा तभी से दुखों ने उससे रिश्ता पक्का कर लिया। मेरी किस्मत हर वक्त किसी सड़े हुए छज्जे की भांति मुझे झुकाती रही और आरती मेरी बदकिस्मती से लड़ते हुए किसी ठोकर की भांति मुझे उठाते उठाते खुद से हार गयी।
रिश्तेदार, रिश्तेदार भी तो घर के ही होते है ना, लेकिन उस तूफान में यदि बहन के घरवाले चाहे होते तो मेरी मदद कर सकते थे। और आज आज बाबूजी, माई और आरती सब साथ में बहन के आने का इंतजार कर रहे होते। अरे मदद तो दूर मेरी बहन को उस मुश्किल घडी में भेजना तक उचित नही समझा उन लोगों ने, आयी होती तो कम से कम वो सबसे मिल पायी होती। वो बिचारी पता नही है कैसी? किस प्रकार उसका जीवन चल रहा है? पता नही इस राखी को वो आ भी पायेगी या नहीं? वही तो इकलौती बची है मेरे दुखों को समझने के लिए, लेकिन यदि वो आयी तो क्या ज़वाब दूंगा। क्या कहूँगा उससे कि मेरे सिवाय अब इस घर में तेरा स्वागत करने को कोई नही बचा.................। ऐसे तमाम प्रश्न उसके दिमाग को परेशान कर ही रहे थे कि अचानक अर्जुन अपने सिर पर एक जाना पहचाना हाथ महसूस करता है। झट से आखों को आंशुओं से आजाद करते हुए नजर दौड़ाने पर पाता है कि सिरहाने उसकी लाडली बहन न जाने कब से खड़ी है और उसके इस दशा को देख शिथिल सी पड़ी एक टक नजरों से उसे निहारे जा रही है। वो इस कदर परेशान है कि उसके हलक से आवाज़ बाहर आने को तैयार ही नहीं।
अचानक बहन को पास देख अर्जुन को विस्वास ही नही हुआ और पूछने लगता है तू कब आई? मैं तेरा इंतजार ही कर रहा था बहन। मैं जान रहा था कि तू जरूर आएगी आज राखी है ना। आ आ बैठ ना बैठ...........कहते ही उसकी आवाज़ रुक जाती है और फिर कोशिश करने के बाद धीमे स्वर में बोल पड़ता है...................लेकिन मैं तेरा स्वागत कैसे करूँ बहन, मैं तो इस बार तेरी ज़िद्द को पूरी करने में भी असमर्थ हूँ। तू तो जानती भी नही होगी ना, अब देख न इस घर में सिवाय तीन चीज़ के कुछ भी नही बचा है मेरी बहन.................. एक तेरे भाई की कमजोर किस्मत के साथ शरीर, दूसरा इससे नाता बना चुका कैंसर और तीसरा हर गम में सहारा देने और शायद कभी साथ न छोड़ने के लिए संकल्पित ये आंशू।
अर्जुन को सँभालते हुए उसकी बहन एक तरफ उसे चुप कराते हुए यह इशारा करती है कि गांव में घुसते ही उसे उसकी स्थिति के बारे में सब पता चल चुका है, तो दूसरी तरफ अपनी किस्मत को कोसती है कि बाबूजी ने कैसे बड़े घर के चक्कर में मेरा विवाह नही बल्कि मुझे किसी जेलखाने में डाल दिया जहाँ रिश्तों के लिए कोई जगह ही नही। खैर कुछ देर बीतने के बाद अपने आप में हिम्मत जुटाते हुए अर्जुन के सूने हाथों पर प्यार को उड़ेलते हुए उसको रेशम के धागे से सुसज्जित करने के साथ ही उसकी जिन्दगी में खुशियों के लौटने की दुआ करते हुए रोते रोते बोल पड़ती है भैया खाना या तोहफा नहीं मुझे तो बस आपके दर्शन ही चहिये। ये मेरा हक़ है और भगवान मेरी जिन्दगी के इस ख़ुशी को मुझसे न छीने उनसे यही विनती है।
फिर भाई बहन एक दूसरे की मायूसी को किनारे करने में मशगूल हो जाते हैं कि अचानक अर्जुन अर्जुन की आवाज़ से घर गूंज उठता है। दरअसल दुनिया के बड़े शहरों से उच्च शिछा पर अपना कब्ज़ा ज़माने के बाद आधुनिक और चकाचौंध भरी जिन्दगी को अपने से दूर कर गांवों में गरीबों की सेवा का संकल्प लिए लोगों की सिर्फ एक कराह पर उनके पास पहुंचकर अपने मरहम रूपी ह्रदय और दवाओं से हंसाने वाले डाक्टर धीर जोर से चिल्लाते हुए अन्दर आकर बोल पड़ते हैं कि अर्जुन हम जीत गए अर्जुन.....................हम जीत गए। तुम्हारी जाँच कि रिपोर्ट जो मैंने बाहर भेजी थी वो तुम्हारी जिन्दगी को साथ लेकर आयी है, अब तुम बिलकुल ठीक हो सकते हो दोस्त......................... हाँ हाँ बिलकुल। और हमारा वादा है तुमसे कि हम आगे भी जीतेंगे। डॉक्टर साहब के इस वक्तब्य से एक तरफ अर्जुन अपनी जिंदगी में रोशनी की किरण देखता है तो दूसरी तरफ उसकी बहन इस बार इतना बड़ा तोहफा पाकर भगवान को धन्यवाद देते हुए भाई को पूर्णतया स्वस्थ होने की विनती करने लग जाती है।
नोट:-  इस कहानी के पात्र व घटनाये सभी काल्पनिक हैं इसका किसी भी घटना या किसी ब्यक्ति से कोई सम्बन्ध नहीं है।

Comments

Popular posts from this blog

पहले चलना तो सीखो बहन की तरह……………..

शाम की सुहानी हवा से मन में शांति पाने के लिए गेट के बाहर वाली चाय की छोटी सी दुकान पर जैसे ही पहुंचा और अभी दुकानदार को चाय के लिए बोलते हुए जैसे ही बैठने की कोशिश कर ही रहा था की अचानक ही रोड पर एक तेज़ रफ़्तार से बाइक जाने की आवाज़ सुनाई पड़ी मैंने मुड कर तुरंत देखा की वो बइक किसी स्कूटी का पीछा कर रही थी और कुछ दूर आगे जाने पर दोनों गाड़ियाँ रुक गई फिर कुछ तेज़ आवाज़ में बात होने लगी अब आवाज़ सुन आस पास के तथा आने जाने वाले लोग इक्कठा होने लगे अब चूकी लड़की और लड़कों की बात थी तो मेरे साथ कुछ और लोग जो दुकान पर बैठे थे हम सब आगे उधर की ओर बढे! तब तक गंगाराम का मोबाइल बजा और वो किसी से बात करने लगा, क्या सोच रहे है गंगाराम कौन है अरे ये तो मेरा बहुत ही पुराना मित्र है और कल अचानक ही बहुत दिनों के बाद मिल गया फिर हमलोग बगल में एक चाय की दुकान पर बैठ कर चाय की चुस्की लेने के साथ-साथ एक दुसरे का हाल चाल पूछने लगे! गंगाराम के हाथ में अख़बार था जिसमे एक न्यूज़ पर गंगाराम अचानक ही हँसते हुए ये कहानी मुझसे कहने लगा था! अब चुकी कहानी अभी अधूरी थी तो फोने रखते ही मैंने उससे कहा की हाँ गं...

इंसान निर्जीव है!

इंसान एक जीव है और कोई भी जीव सजीव होता है- ऐसा इसलिए क्योंकि वह चल सकता है, बोल सकता है, सोच सकता है और कुछ भी कर सकता है। ऐसा बचपन से सुनता आया हूँ। अबतक के जीवन यात्रा में जितने भी लोगों से साक्षत्कार हुआ और जिसके पास जितना अधिक ज्ञान मार्ग हैं, सभी ने अपनी पकड़ के अनुसार उस पर चलाते हुए यह बताने और समझाने में कहीं कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी कि जीव चाहे किसी भी रूप में हो वह सजीव ही होता है। आज भी अनेकों विद्वान अपने ज्ञानदीप से यह उजाला करने की लगातार कोशिश में लगे रहते हैं कि जीव के अनेक रूप हैं और सभी रूपों में वह सजीव ही होता है। ऐसे में यह कहना शायद गलत हो परंतु, पता नहीं क्यों दिमाग का एक छोटा सा कोना तमाम ज्ञानार्जन के बाद भी इस नतीजे पर नहीं पहुंच पा रहा कि जीव सजीव होता है, ऐसा वह मानने को तैयार ही नहीं। बार-बार उसे समझाने पर भी उसे यही लग रहा है कि जीव  तो सजीव है ही नहीं। हकीकत में यह भी निर्जीव है जैसे कमरे में रखी एक कुर्सी। और जिस प्रकार उस कुर्सी के सजीव होने का कोई सवाल नहीं, ठीक उसी प्रकार किसी भी जीव चाहे वह किसी भी रूप में हो उसके सजीव होने का भी कोई सवाल पैदा न...

...और पूरी रात जगता रहा

तेज़ रफ़्तार से चल रही जीवन रूपी गाड़ी में से दस मिनट का समय निकाल पाना आसान होते हुए भी काफी मुश्किल सा नज़र आता है। वही पुरानी घिसी पिटी रोज की दिनचर्या...............सुबह-सुबह गायत्री मंत्र वाले अलार्म टोन के साथ एक खूबसूरत दिन की चाहत में आँखों का खुलना, जल्दी-जल्दी महत्वपूर्ण आवश्यक्ताओं को पूरा करते हुए समय से पांच मिनट पहले पहुचने का टार्गेट लिए निर्धारित समय पर ही आफिस में घुसना और फिर एक गिलास सादे पानी के साथ जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिए अपने कार्य में लग जाना। कार्य के दौरान कभी बोस की सुनना तो कभी झल्लाए दिमाग से जूनियरों को सुनाना, फिर शाम को जल्दी घर पहुँचाने की मन में लालसा लिए लेट हो जाना और रात में देर से सोना..............। रविवार का दिन होने के कारण देर तक बिस्तर पर लेटे रवि के दिमाग में ये सारी बातें काफी देर से घूम रहीं थी। मन उबा तो सोचा कि क्यों न दो चार दिन की छुट्टी लेकर कहीं घूम आने का प्रोग्राम बनाया जाय। दिमाग और मन के साथ काफी मशक्कत करने और फिर बाद में दोनों को मनाते हुए वह इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि क्यों न शिवानंद के घर ही चलूँ, खर्च भी कम होगा ...