वर्ष में एक बार हिंदी की याद और इसके लिए थोडा समय आखिर में हम सभी निकाल ही लेते हैं। दरअसल इस दिन इसकी चिंता में कहीं किसी मंच पर होते हैं कुछ वादे, तो कहीं किसी मंच से दे दी जाती हैं कुछ नसीहतें। और फिर। फिर क्या? फिर अगले वर्ष की इसके लिए निर्धारित तारिख के इंतजार में हम सभी मशगूल हो जाते हैं।
ऐसे में मुझे एक घटना याद आती है जो हिंदी की वर्तमान दशा से परिचय कराती है। बात ज्यादा पुरानी नहीं है जब मुझे एक प्राइवेट विद्यालय के वार्षिक कार्यक्रम में जाने का अवसर मिला था। विद्यालय इंग्लिश मीडियम जो एक गांव में स्थित है, शायद वहां अधिकाधिक आने जाने वाले हिंदी को ही समझते हों। समारोह में बैठे लगभग ज्यादातर लोग भी सम्भवतः ऐसे ही थे जो सिर्फ हिंदी ही जानते थे। कार्यक्रम चल रहा था एक एक कर अतिथिगण अपनी विद्वता का परिचय देते हुए उपस्थित लोगों और बच्चों को कुछ न कुछ सीख दिए जा रहे थे। एक प्रोफ़ेसर साहब जो डिग्री कालेज में इंग्लिश के हेड थे, उनकी भी वहां उपस्थित थी। कुछ देर बाद माईक से निकली मधुर आवाज़ ने उनको भी माईक की ओर आमंत्रित किया। पिछले सभी वक्ताओं की तरह उन्होंने भी अपना भाषण शुद्ध हिंदी में प्रस्तुत किया और इसके बाद मेरी नजर में पहले से मौजूद उनके प्रति इज़्ज़त में और इजाफा हुआ। लेकिन आगे जो हुआ वो मेरे लिए थोड़ा अजीब था, जब उस स्कूल के प्रिंसिपल साहब का नंबर आया और उन्होंने हिंदी की बजाय अंग्रेजी में बोलना पसंद किया। खैर उन्होंने तो अपना काम अपने अंदाज में कर दिया, लेकिन उन्होंने कहा क्या? यह शायद वहां मौजूद संख्या में सिर्फ कुछ के ही पल्ले पड़ा। बाकियों के तो सिर के ऊपर से ही शायद उड़ गया होगा। खैर इससे भी अजीब मुझे तब लगा जब मैं बाहर निकला और लोगों के मुँह से यह सुना कि प्रिंसिपल साहब बहुत जानकार है। केवल अंग्रेजी बोलते हैं, हिंदी में तो एक भी शब्द नहीं बोला। यह विद्यालय वाक्य्यी में इंग्लिश मीडियम है। इसी में बच्चों को पढ़ाने लायक है। इसमें बच्चे अधिक जानकर होंगे और काफी आगे भी जायेंगे।
अंग्रेजी हुकूमत से हम भले ही आजाद हो गए हो लेकिन अंग्रेजी भाषा का बर्चस्व हम पर आज भी दिखता है और उसका एक मात्र कारण शायद यह है कि हम इससे आजाद होना ही नहीं चाहते। दूसरे देशों कि सभ्यताओं और वहां की भाषाओं को अपनाने में लगभग हम सभी इतना मग्न हो गए हैं कि, शायद हमें अपनी संस्कृति का ध्यान होते हुए भी नहीं रहा। आज जिस तरह पश्चिमी देशों के रहन- सहन,खान-पान,पहनावा,उनके तौर-तरीकों के साथ-साथ हम अपने ऊपर उनकी भाषा को हावी करते नजर आ रहे हैं शायद, यह हमारे अपने ही द्वारा अपनी ही संस्कृति पर करार प्रहार है। कहीं न कहीं आज हम हिंदी को हर जगह हर पल खुद ही दरकिनार करने की कोशिश करते नजर आते हैं। यहां गौर कीजिए, वर्तमान में जहाँ एक तरफ कुछ माँ-बाप अपने बच्चों को शुरू से ही सिर्फ और सिर्फ अंग्रेजी भाषा में पारंगत करना ज्यादा कारगर समझते हैं वहीँ दूसरी तरफ कुछ ऐसे भी हैं जो अपने बच्चों को हिंदी से कोशों दूर रखना ही अपनी शान समझते हैं। सोचिये, अब हम वहां पहुंच चुके हैं जहां सिर्फ अंग्रेजी बोलने वाले परिवार को माडर्न की संज्ञा दी जाती है।
ऐसे में यहाँ गौर करने योग्य यह है कि, हम अपने बच्चों को जिन्हें कल का भविष्य कहा जाता है और जिनके कन्धों पर देश की पुरानी संस्कृतियों और विरासतों को आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी होती है को हिंदी माध्यम से संचालित स्कूलों कि बजाय अंग्रेजी माध्यम वाले स्कूलों में ही पढाना ज्यादा पसंद करते हैं। यहां पर यदि हिंदी की हमारे बीच मौजूदगी की बात हो तो, अंग्रेजी माध्यम ही क्यों हिंदी माध्यम से संचालित स्कूलों में भी हिंदी का अभाव खूब नजर आता है। उदहारण स्वरुप हिंदी माध्यम से संचालित एक विद्यालय में पढने वाले चौथी क्लास के छात्र के एक सवाल ने मुझे तब हैरानी में डाल दिया जब उसने मुझसे यह प्रश्न किया कि तैंतीस कितने को कहते हैं? क्या थर्टी थ्री को तैंतीस कहा जाता है?
ऐसे में यह सिर्फ एक बच्चे का सवाल ही नहीं आज लगभग अधिकतर बच्चों को अंकों के हिंदी स्वरूप कि जानकारी नहीं होती है। इस प्रकार बच्चों के पास दहाई और तिहाई की जानकारी कितनी होगी इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है। जबकि आज कुछ देशों में यहाँ तक की खुद अंग्रेजी भाषी देशों में हिंदी भाषा को वहां के पाठ्यक्रम में जोड़ने की बात सुनाई देती है। अब ऐसे में ऐसी खबर जहाँ एक तरफ हम सभी के लिए गर्व कि बात है वहीँ दूसरी तरफ विचारणीय इस लिए है कि, हमारी संस्कृति और भाषा का सम्मान कोई और करे और हम खुद ऐसा करने से बचने कि कोशिश करें।
इसमें कोई दो राय नहीं कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपने बच्चों और खुद को खड़ा करने के लिए भाषाओँ की अधिक से अधिक जिसमें विशेषतया अंग्रेजी की जानकारी व इसपर पकड़ होना बेहद आवश्यक है लेकिन, इसके साथ ही हमें अपनी भाषा और संस्कृति का सम्मान करना भी शायद उतना ही आवश्यक नजर आता है जितना दूसरी भाषाओं और सभ्यताओं की जानकारी रखना। यहां हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारे पूर्वजों ने अपनी संस्कृति का भरपूर सम्मान करते हुए ही अपनी पहचान विश्व स्तर पर बनाया था।
ऐसे में मुझे एक घटना याद आती है जो हिंदी की वर्तमान दशा से परिचय कराती है। बात ज्यादा पुरानी नहीं है जब मुझे एक प्राइवेट विद्यालय के वार्षिक कार्यक्रम में जाने का अवसर मिला था। विद्यालय इंग्लिश मीडियम जो एक गांव में स्थित है, शायद वहां अधिकाधिक आने जाने वाले हिंदी को ही समझते हों। समारोह में बैठे लगभग ज्यादातर लोग भी सम्भवतः ऐसे ही थे जो सिर्फ हिंदी ही जानते थे। कार्यक्रम चल रहा था एक एक कर अतिथिगण अपनी विद्वता का परिचय देते हुए उपस्थित लोगों और बच्चों को कुछ न कुछ सीख दिए जा रहे थे। एक प्रोफ़ेसर साहब जो डिग्री कालेज में इंग्लिश के हेड थे, उनकी भी वहां उपस्थित थी। कुछ देर बाद माईक से निकली मधुर आवाज़ ने उनको भी माईक की ओर आमंत्रित किया। पिछले सभी वक्ताओं की तरह उन्होंने भी अपना भाषण शुद्ध हिंदी में प्रस्तुत किया और इसके बाद मेरी नजर में पहले से मौजूद उनके प्रति इज़्ज़त में और इजाफा हुआ। लेकिन आगे जो हुआ वो मेरे लिए थोड़ा अजीब था, जब उस स्कूल के प्रिंसिपल साहब का नंबर आया और उन्होंने हिंदी की बजाय अंग्रेजी में बोलना पसंद किया। खैर उन्होंने तो अपना काम अपने अंदाज में कर दिया, लेकिन उन्होंने कहा क्या? यह शायद वहां मौजूद संख्या में सिर्फ कुछ के ही पल्ले पड़ा। बाकियों के तो सिर के ऊपर से ही शायद उड़ गया होगा। खैर इससे भी अजीब मुझे तब लगा जब मैं बाहर निकला और लोगों के मुँह से यह सुना कि प्रिंसिपल साहब बहुत जानकार है। केवल अंग्रेजी बोलते हैं, हिंदी में तो एक भी शब्द नहीं बोला। यह विद्यालय वाक्य्यी में इंग्लिश मीडियम है। इसी में बच्चों को पढ़ाने लायक है। इसमें बच्चे अधिक जानकर होंगे और काफी आगे भी जायेंगे।
अंग्रेजी हुकूमत से हम भले ही आजाद हो गए हो लेकिन अंग्रेजी भाषा का बर्चस्व हम पर आज भी दिखता है और उसका एक मात्र कारण शायद यह है कि हम इससे आजाद होना ही नहीं चाहते। दूसरे देशों कि सभ्यताओं और वहां की भाषाओं को अपनाने में लगभग हम सभी इतना मग्न हो गए हैं कि, शायद हमें अपनी संस्कृति का ध्यान होते हुए भी नहीं रहा। आज जिस तरह पश्चिमी देशों के रहन- सहन,खान-पान,पहनावा,उनके तौर-तरीकों के साथ-साथ हम अपने ऊपर उनकी भाषा को हावी करते नजर आ रहे हैं शायद, यह हमारे अपने ही द्वारा अपनी ही संस्कृति पर करार प्रहार है। कहीं न कहीं आज हम हिंदी को हर जगह हर पल खुद ही दरकिनार करने की कोशिश करते नजर आते हैं। यहां गौर कीजिए, वर्तमान में जहाँ एक तरफ कुछ माँ-बाप अपने बच्चों को शुरू से ही सिर्फ और सिर्फ अंग्रेजी भाषा में पारंगत करना ज्यादा कारगर समझते हैं वहीँ दूसरी तरफ कुछ ऐसे भी हैं जो अपने बच्चों को हिंदी से कोशों दूर रखना ही अपनी शान समझते हैं। सोचिये, अब हम वहां पहुंच चुके हैं जहां सिर्फ अंग्रेजी बोलने वाले परिवार को माडर्न की संज्ञा दी जाती है।
ऐसे में यहाँ गौर करने योग्य यह है कि, हम अपने बच्चों को जिन्हें कल का भविष्य कहा जाता है और जिनके कन्धों पर देश की पुरानी संस्कृतियों और विरासतों को आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी होती है को हिंदी माध्यम से संचालित स्कूलों कि बजाय अंग्रेजी माध्यम वाले स्कूलों में ही पढाना ज्यादा पसंद करते हैं। यहां पर यदि हिंदी की हमारे बीच मौजूदगी की बात हो तो, अंग्रेजी माध्यम ही क्यों हिंदी माध्यम से संचालित स्कूलों में भी हिंदी का अभाव खूब नजर आता है। उदहारण स्वरुप हिंदी माध्यम से संचालित एक विद्यालय में पढने वाले चौथी क्लास के छात्र के एक सवाल ने मुझे तब हैरानी में डाल दिया जब उसने मुझसे यह प्रश्न किया कि तैंतीस कितने को कहते हैं? क्या थर्टी थ्री को तैंतीस कहा जाता है?
ऐसे में यह सिर्फ एक बच्चे का सवाल ही नहीं आज लगभग अधिकतर बच्चों को अंकों के हिंदी स्वरूप कि जानकारी नहीं होती है। इस प्रकार बच्चों के पास दहाई और तिहाई की जानकारी कितनी होगी इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है। जबकि आज कुछ देशों में यहाँ तक की खुद अंग्रेजी भाषी देशों में हिंदी भाषा को वहां के पाठ्यक्रम में जोड़ने की बात सुनाई देती है। अब ऐसे में ऐसी खबर जहाँ एक तरफ हम सभी के लिए गर्व कि बात है वहीँ दूसरी तरफ विचारणीय इस लिए है कि, हमारी संस्कृति और भाषा का सम्मान कोई और करे और हम खुद ऐसा करने से बचने कि कोशिश करें।
इसमें कोई दो राय नहीं कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपने बच्चों और खुद को खड़ा करने के लिए भाषाओँ की अधिक से अधिक जिसमें विशेषतया अंग्रेजी की जानकारी व इसपर पकड़ होना बेहद आवश्यक है लेकिन, इसके साथ ही हमें अपनी भाषा और संस्कृति का सम्मान करना भी शायद उतना ही आवश्यक नजर आता है जितना दूसरी भाषाओं और सभ्यताओं की जानकारी रखना। यहां हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारे पूर्वजों ने अपनी संस्कृति का भरपूर सम्मान करते हुए ही अपनी पहचान विश्व स्तर पर बनाया था।

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