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संग से बनाम तक


इस धरती पर जन्म लेने वाला हर लड़का या लड़की दुनिया के किसी भी कोने में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के साथ-साथ हर रोज एक नए सपने को देखने व उसको सवारने में निरंतर प्रयत्नशील रहता है। हर एक की लालसा ऐसी जरूर होती है कि, उसके जीवन में किसी भी रूप में मिठास भरा हो और निरंतर कुछ सुनहरे पल हमेशा अपने आगोश में लिए रहें। ऐसा होता भी जरूर है। लगभग सभी के जिन्दगी में हमेशा अनेक ऐसे पल अवश्य आते ही हैं जो यादगार बन जाते हैं।
दरअसल जन्म से निरंतर आगे बढ़ने वाली जिंदगी अनेक अनुभव कराने के साथ बीच-बीच में ऐसे पल अवश्य लाती ही रहती है जब, इंसान कुछ विशेष अनुभव करता है। अब ऐसा किसी भी रूप में और व्यक्ति विशेष की रूचि के अनुसार हो सकता है। कोई अपनी पढ़ाई को लेकर उत्साहित और रोमांचित हो सकता है, तो कोई अपने अनेक प्रकार के शौक को। कोई यात्राओं से खुशी में डूबने की कोशिश करता है, तो कोई कुछ खरीदारी से। यानि हर प्राणी का अपना अलग शौक होता है और इसलिए हर इंसान के रोमांचित, उत्साहित होने का मार्ग अलग-अलग हो सकता है। परन्तु सभी के जीवन में आने वाला एक पल ऐसा अवश्य होता है जो विशेषतया लगभग सभी को रोमांचित और उत्साहित जरूर कर जाता है और वो है एक युवा को मिलने वाला वो अनुभव जब उसके और उसके विपरीत सेक्स के नाम के बीच संग शब्द का इस्तेमाल होता है।
जी हाँ, यहां संग से मेरा तात्पर्य विवाह के निमंत्रण पत्र पर दूल्हा-दुल्हन नाम के बीच लिखे जाने वाले उस शब्द के रूप से है जो, एक युवा को उसके जीवन में सम्भवतः सबसे अधिक रोमांचित अनुभव करने का अवसर प्रदान करता है। दरअसल इंसान की जिंदगी में यही वह शब्द होता है जिसकी वजह एक युवक/युवती अपने निजी जीवन के प्रति अधिक से अधिक उत्साहित और रोमांचित होने का सुख प्राप्त करते हैं। जीवन में इस शब्द के आने मात्र से ही लगभग हर युवा भविष्य के गहराईयों में गोता लगाते दूर तक ख्वाबों में ही अपनी जिंदगी में एक मिठास को अनुभव कर पाता है। इस शब्द के इस्तेमाल मात्र से ही लगभग हर कोई अपने होने वाले जीवन साथी से अनेक अपेक्षाओं को पाले रंगीन और जिम्मेदारी भरे उन सपनों को देखने में मशगूल दिखने लगता है, जो उसके जीवन को आगे एक नई पहचान देने वाले होते हैं। दो नामों के बीच इस शब्द के इस्तेमाल मात्र से ही तो दो अलग-अलग जिंदगियां एक सी नजर आने लगती हैं। नजर ही क्यों, एक हो भी तो जाती हैं और इसके बाद सफर शुरू होता है दो तरफ से आये उन अलग-अलग रास्तों का एक में समाहित होकर तथा एक नए रास्ते का निर्माण कर आगे की ओर बढ़ जाने का जिसके लिए वे संकल्पित होते हैं।
लेकिन आगे? क्या होता है आगे? आगे चल कर समाज के सामने दो तरह के चित्र क्यों दिखाई देने लगते है? ऐसा कैसे और क्यों हो जाता है कि, जीवन के लम्बे सफर के अंत तक कहीं पर तो यह संग शब्द आजीवन दो नामों के बीच निरंतर अपनी मिठास को बढ़ाते अपनी मजबूत पकड़ के साथ विराजमान दिखता है परंतु, कहीं? कहीं तो शुरुआत में ही इसकी पकड़ कमजोर क्यों दिखने लगती है? निरंतर कहीं इसकी मिठास का स्वाद फीका सा क्यों नजर आने लगता है? स्वाद का फीका होना भी आश्चर्यजनक है लेकिन, अधिक आश्चर्यजनक तो तब हो जाता है जब, एक जिंदगी में वो शब्द नजर आने लगता है जो संग शब्द को जड़ से ही समाप्त कर उसकी जगह अपना कब्जा जमा लेता है और तब खड़ा होता है एक नया सवाल।
जी हाँ, मैं बात कर रहा हूँ उस बनाम शब्द की जिससे वर्तमान भरा पड़ा है। शायद यह एक ऐसा शब्द है जिसके, किसी भी रूप से यदि कोई इंसान अपने जीवन में बच जाय तो सम्भवतः उसे अपने आपको परम भाग्यशाली समझना चाहिए। ऐसे में यहां सवाल यह खड़ा होता है कि आखिर यह शब्द संग जैसे पवित्र और मजबूत शब्द को कहीं-कहीं कमजोर कैसे और क्यों बना देता है? क्यों कहीं किसी जीवन में संग जैसी मधुर छाया नजर आती है तो, किसी जीवन में बनाम जैसी तपती और जटिल धूप? आखिर कहीं-कहीं संग के फूल क्यों मुरझा कर बनाम जैसे कांटे को पनपने का अवसर देते है? संग जैसा पवित्र शब्द आखिर किस कारण किसी को मजबूरी के रूप में दिखने लगता है? आखिर क्यों कोई अपने साथी के बजाय बनाम जैसे सांप को गले लगाना ज्यादा पसंद करने लगता है?
दरअसल, तमाम ज्वलन्त प्रश्न ऐसे हैं जो झकझोर कर रख देते हैं। आखिर जीवन में इन शब्दों के फेर-बदल के लिए कौन जिम्मेदार होता है? दो नामों के बीच इनकी अदला-बदली जैसे घृणित कार्य के लिए आखिर कौन उत्तरदायी है? संग को हटा कर बनाम को निमन्त्रण आखिर देता कौन है? आखिर वह कौन सी परिस्थिति उतपन्न हो जाती है जिसकी वजह, अग्नि को साक्षी मानकर साथ चलने के लिए संकल्पित एक जोड़ा अपने संकल्प की आहुति चढ़ाने से भी परहेज नहीं करता?
जाहिर सी बात है, ऐसे जटिल और घृणित कार्य शब्द तो नहीं कर सकते। तो आखिर करता है कौन.........? कहीं ऐसा तो नहीं कि इसके लिए सिर्फ और सिर्फ थोड़ी सी नासमझी जिम्मेदार होती है क्योंकि, जिस प्रकार संग और बनाम हैं तो दोनों शब्द ही लेकिन, इनके कार्य में जमीन-आसमान का अंतर है, ठीक उसी प्रकार समझ और नासमझ भी तो हैं शब्द ही लेकिन सम्भवतः इनके भी कार्य में जमीन और आसमान का ही अंतर होता है।

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