(धर्मेश तिवारी)
सोचता हूँ ये कि वो, किस रूप में अब हो गए
क्या कहे थे-किया क्या, थे वादे कुछ जो खो गए
होंगे वो दुनिया की खातिर, इक मुसाफिर की तरह
पर कर दिया वो काम जो, घर में नजर से खो गए
……….…..कि वो, किस रूप में अब हो गए
क्या बात थी, इक समय था, हर ओर चर्चे में रहे
हर बात में हैं आज भी पर, दूर कितना हो गए
हैं अडिग सुनता हूँ पर, दिखते मगन-मद-चूर वो
जिस मिट्टी में चल के बढ़े, उसमें जहर को बो दिए
……….…..कि वो, किस रूप में अब हो गए
उनको बताऊं किस कदर, जनता ने पीया है जहर
अरे फैसले दर फैसले, जनता ने जीया है कहर
सब दर्द को पीते रहे हम, खूबसूरत कल मिले
पर है नतीजा खूब क्या, हम एक थे और बंट गए
……….…..कि वो, किस रूप में अब हो गए
हर घाव जो भरने थे छोड़ा, नए कुछ और मिल गए
जो बातें करते थे कभी, लगता जुबां अब सिल गए
मूर्ख है जनता सुना, पर वो भी कान खोलें और सुनें
कि आंसुओं से आमजन के, कइयों के मुकद्दर मिट गए
……….…..कि वो, किस रूप में अब हो गए
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